गीत के स्वर में लपट भी
गीत के स्वर में लहर भी!
भावनाओं से विनिर्मित
गीत का उद्गम हृदय है,
और मानव के हृदय में
कुछ प्रलय है, कुछ प्रणय है।
एक क्षण उच्छ्वास का तो
दूसरा उल्लास का है,
एक क्षण पतझार का तो
दूसरा मधुमास का है!
आग-पानी से विनिर्मित
जिन्दगी है इसलिए ही,
गीत के स्वर में लपट भी
गीत के स्वर में लहर भी!
ओस अब अंगार होना चाहती है।
लेखनी तलवार होना चाहती है।
कह रहा आकाश, “मैं विक्षुब्ध-सा हूँ"
कह रही धरती कि “मैं बेहद दुखी हूँ
बर्फ की चादर सुलगती जा रही है,
कह रहा हिमगिरि कि “मैं ज्वालामुखी हूं।''
बुद्ध का यह देश करवट ले रहा है
अब क्षमा प्रतिकार होना चाहती है।
ओस अब अंगार होना चाहती है।
लेखनी तलवार होना चाहती है।
कामदेवों को बहुत हमने जगाया,
अप्सराओं को बहुत हमने रिझाया।
रजकणों को व्योम के सिर पर चढ़ाया,
धूल पर आकाश कुसुमों को बिछाया।
अब धरा का ऋण चुकाने की घड़ी है,
रागिनी हुंकार होना चाहती है।
ओस अब अंगार होना चाहती है।
लेखनी तलवार होना चाहती है
सृष्टि के सबसे रंगीले फूल लाकर
प्रेयसी के पाँव पर हमने चढ़ाए।
आज जब माँ ने हमें आवाज दी है,
हम हथेली पर लिए निज शीश आए।
बात तन, मन या कि धन की ही नहीं है,
जिन्दगी बलिहार होना चाहती है।
ओस अब अंगार होना चाहती है।
लेखनी तलवार होना चाहती है।
बाँसुरी से है जिन्हें हमने सुलाया,
शंख से उनको जगाना जानते हैं।
इन्द्रधनुषी रंग मेघों में भरे तो
बिजलियाँ भी हम गिराना जानते हैं।
रूद्र के घुंघरू हृदय में बज रहे हैं,
भैरवी साकार होना चाहती है।
ओस अब अंगार होना चाहती है।
लेखनी तलवार होना चाहती है।
देश का भूगोल घायल हो गया है,
कालिमा इतिहास के मुख पर पड़ी है।
साथियों, मधु की कथाएँ भूल जाओ,
यह लहू में स्नान करने की घड़ी है।
अब गुलाबों की तरह खिलती जवानी,
वज्र की दीवार होना चाहती है।
ओस अब अंगार होना चाहती हैं।
लेखनी तलवार होना चाहती है।
चाँदनी को है कसा आलिंगनों में,
धूप को भी अब गले अपने लगाओ।
भाल पर बैठा चुके शशि की कलाएँ,
अब हलाहल पान करके भी दिखाओ ।
मुक्ति का मन्दिर निमंत्रण दे रहा है,
उम्र बन्दनवार होना चाहती है।
ओस अब अंगार होना चाहती है।
लेखनी तलवार होना चाहती है।
मत समझना-हो गया है राख का अधिकार,
मैं अभी अंगार हूँ, जलता हुआ अंगार!
है हवा ठहरी हुई, निःस्पंद हैं लपटें,
आत्म-चिंतन में मुझे तुम व्यस्त ही समझो,
ओ, अभागे काम! फिर धोखा न खा जाना,
बंद है शिव का नयन, ध्यानस्थ ही समझो!
राख है विश्राम में ओढ़ी हुई चादर,
आग ही है धर्म अपना, आग ही शृंगार!
गीदड़ों के मर्सिये , मेमनों के गीत,
वानरों की किचकिचाहट, पंछियों का शोर,
गाय-भैंसों का इँभाना, गजों की चिंघाड़,
चौकड़ी भरते मृगों का शब्द यह चहुँ ओर!
इन सभी कोलाहलों की उम्र तब तक है,
सुप्त जब तक कन्दरा में सिंह की हुँकार!
सूर्य सोता है कि जग को रात मिल जाए,
चाँद को पीयूषवर्षी गात मिल जाए,
जो सुबह से शाम तक झुलसे, उन्हें कुछ तो
चाँदनी की रेशमी बरसात मिल जाए!
सूर्य के सौजन्य की कीमत न कम आंको,
सह नहीं सकता तिमिर पहली किरण का वार ।
व्योम तपता, भूमि तपती, सिन्धु-तल तपता,
आदमी का अर्थ भी शायद तपन ही है।
यज्ञ में आहुति बने जो जल रहे हैं हम
ज़िन्दगी का अर्थ भी शायद हवन ही है।
स्वर्ग में मिलती अगर यह आग तो शायद
देवता लेते नहीं इस भूमि पर अवतार!
Copyright © 2021 ramkumarchaturvedichanchal.com - All Rights Reserved.
Hindi poems by Ram Kumar Chaturvedi "Chanchal"
We use cookies to analyze website traffic and optimize your website experience. By accepting our use of cookies, your data will be aggregated with all other user data.