सुबह का इन्तजार है।
दिया-दिया उधार का, किरण-किरण उधार है।
सुबह का इन्तज़ार था, सुबह का इन्तज़ार है।
उमंग है बुझी-बुझी, थकान हर निगाह में
पहाड़-सी अमावसे खड़ी हैं राह-राह में
न हो रहा है जागरण, न बज रही है भैरवी
घुट-घुटी मृदंग है, लुटा-लुटा सितार है।
सुबह का इन्तजार था, सुबह का इन्तज़ार है।
ग्रहण सुबह-सुबह लगा कि सूर्य ही छिपा लिया
किसी ने मेरे देश का प्रभात ही चुरा लिया
न स्वर्ग भूमि पर झुका, न भूमि स्वर्ग तक उठी
हिमाद्रि शृग मौन हैं, उदास गंगधार है।
सुबह का इन्तज़ार था, सुबह का इन्तज़ार है।
डरे-डरे-से लोग हैं, गरज रहीं हैं गोलियाँ
नगर-नगर डगर-डगर हैं नफ़रतों की बोलियाँ
कहीं है युद्ध जाति का, कहीं है सम्प्रदाय का
शिकारियों की भीड़ में, शिकार सिर्फ प्यार है।
सुबह का इन्तज़ार था, सुबह का इन्तज़ार है।
सिकुड़ रहे-से खेत हैं, उजड़ रही हैं बस्तियाँ
कि कुर्सियों की दौड़ में लगी हुई हैं हस्तियाँ
घुटा है न्याय का गला, लुटी है सभ्यता, कला
दिशा-दिशा में भ्रष्ट राजनीति का बुखार है।
सुबह का इन्तज़ार था, सुबह का इन्तज़ार है।
दिशाविहीन रोष में भटक रहीं जवानियाँ
नदी में जल नहीं रहा, सिसक रहीं रवानियाँ
न तन की है, न मन की है, सभी को फिक्र धन की है।
वतन की आन-बान का, न शान का विचार है।
सुबह का इन्तज़ार था, सुबह का इन्तजार है।
कैसे बतलाऊँ मैं, कैसे समझाऊँ मैं,
अर्थहीन बातों में अर्थ हुआ करता है।
मोगरे महकते हैं रजनी के बालों में,
चन्द्रमा उलझाता है- सूनी तरु-डालों में।
फागुनी हवाओं में अनदेखे झरते जो
पतझर के पातों में अर्थ हुआ करता है!
बाहर सन्नाटा हो, भीतर सूनापन हो,
अपना मन जबकि बना अपना ही दरपन हो!
पलकें झप जाएँ पर नींद नहीं आती हो,
ऐसी भी रातों में अर्थ हुआ करता है!
मरुथल में टूट रही धारों को मोड़ना,
खंडहर की छाँह बैठ कॉकरियाँ जोड़ना।
फूलों को नोंच-नोंच, तिनकों को तोड़ना,
ऐसी भी घातों में अर्थ हुआ करता है!
आहट-सी आती है झोंको की चाल की,
बड़ी दूर चली गई लहरों की पालकी!
गीलापन शेष रहा तट के पाषाणों पर,
क्षणभंगुर नातों में अर्थ हुआ करता है!
कैसे बतलाऊँ मैं, कैसे समझाऊँ मैं,
अर्थहीन बातों में अर्थ हुआ करता है।
कड़ी धूप झेली दुपहर की, तरुवर नहीं मिला ।
मरु में भटक-भटक हारे पर निर्झर नहीं मिला।
कस्बे, ग्राम, नगर आए थे कितने राहों में,
कोई हमको बाँध न पाया अपनी बाँहों में।
झोंपड़ियाँ दुख में डूबी थीं, घर संघर्ष भरे,
सामन्ती अभिमान लिए थे महल निगाहों में।
शायद हम भी ठहर राह की थकान भुला लेते,
अपनेपन की गन्ध जहाँ हो–वह घर नहीं मिला।
यों अपने भी कितने सारे संगी-साथी थे,
पर उने दिल बुझे हुए दीपक की बाती थे।
झूठी हँसी, मित्रता झूठी, झूठे वादे थे,
बह जाने वाले सारे रिश्ते बरसाती थे।
नफ़रत तो नफ़रत, लोगों ने प्यार छिपाया था,
हम जिस पर विश्वास लुटाते-वह स्वर नहीं मिला।
क्षमता से ज्यादा अपना संघर्ष महान रहा,
दर्द मिला जिनसे—उनको गीतों का दान रहा।
धन-सम्पत्ति, शक्ति या यश की साधे नहीं रहीं,
यह जीवन तो सिर्फ प्यार का अनुसंधान रहा।
मन्दिर-मन्दिर फूल चढ़ाकर पाहन पूज लिए,
सुन्दर से सुन्दर प्रतिमा में ईश्वर नहीं मिला।
जीतों का अभिमान, हार का गम भी नहीं किया,
मुश्किल में मुखड़ा आँसू से नम भी नहीं किया।
हम मानव ही रहे, दनुजता पास न आने दी,
लेकिन कभी देव बनने का भ्रम भी नहीं किया।
हमने उत्तर दिए उम्र-भर सबके प्रश्नों के,
हमने प्रश्न किया तो हमको उत्तर नहीं मिला।
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