यह पीर पुरानी है, लेकिन फिर भी लगती है नई-नई!
मैं वह मानव, संघर्षों में
बीता जिसका कर्मठ जीवन,
संकोच बिना ही तोड़ दिए
जिसने जग के सौ-सौ बन्धन!
पर, तोड़ न पाया मैं बन्धन,
तुमने जब बाँहों में बाँधा,
तुम बिछुड़ी, वे बाँहें बिछुड़ीं,
बिछुड़ा न मगर वह आलिंगन!
निर्मोही पग बढ़ते आगे,
ममतामय मन खिंचता पीछे,
जंजीर पुरानी है. लेकिन फिर भी लगती है नई-नई!
यह पीर पुरानी है, लेकिन फिर भी लगती है नई-नई!
मदिरालय राख हुआ फिर भी
पीने को मन ललचाता है!
उर के घावों को अब खुद ही
सीने को मन ललचाता है!
निश्चित है, तुम न मिलोगी, पर,
मिलने की है उम्मीद लगी,
मुर्दे से बदतर हूँ, फिर भी
जीने को मन ललचाता है!
अब तक सारे संबल छूटे,
अब तक सारे सपने टूटे!
तकदीर पुरानी है, लेकिन, फिर भी लगती है नई-नई!
यह पीर पुरानी है, लेकिन, फिर भी लगती है नई-नई!
उर में हो तुम युग से,
लेकिन, लगता है उर आबाद नया,
दीवाने सागर को जैसे
लगता है हर दिन चाँद नया!
मैं भूल गया सारी दुनिया,
पर, भूल नहीं पाया तुमको,
मधुपान किए युग बीत गए,
लगता है पर उन्माद नया!
श्रृंगार तुम्हारा युग-युग से
बसता है मेरे नयनों में,
तसवीर पुरानी है, लेकिन, फिर भी लगती है नई-नई!
यह पीर पुरानी है, लेकिन, फिर भी लगती है नई-नई!
हमारी आँख से आँसू ढुलकते हैं।
कहीं पर गीत गाए जा रहे होंगे !
बिना तम के हमारा घर अँधेरा है,
अँधेरा प्राण में, बाहर अँधेरा है!
कहीं उत्सव मनाया जा रहा होगा,
कहीं दीपक जलाये जा रहे होंगे!
हमारा स्वर सँधा है, गीत छूटे हैं,
हमारी बीन के सब तार टूटे हैं!
कहीं शहनाइयाँ मदमा रही होंगी
कहीं नूपुर बजाये जा रहे होंगे!
किसी ने साथ चलकर राह छोड़ी है,
सी ने प्यार की सौगन्ध तोड़ी है,
हमारी आस की दुनियाँ उजड़ती है।
कहीं सपने सजाये जा रहे होंगे!
पराया हो गया जिसको कहा अपना,
पराया है हमारी आँख का सपना! ।
रचाकर हाथ में मेंहदी,
पराए भी कहीं अपने बनाए जा रहे होंगे।
हर चीज बदलने वाली है यों तो लेकिन,
बदला-बदला व्यवहार तुम्हारा खलता है।
जाने-अनजाने ही बंध जाया करते हैं,
दुर्बलता होती है दीवाने प्राणों में।
दर्दो का बोझा छोड़ मौन चल देते हैं,
आदत यह होती है मन के मेहमानों में।
भोले हाथों लुट जाने की कल्पना न थी,
चलने को तो सब कुछ दुनिया में चलता है।
बदला-बदला व्यवहार तुम्हारा खलता है।
तुमसे क्या जोड़ा नेह, निमन्त्रण दे डाला,
मैंने सौ-सौ आँधियों और तूफानों को,
हर साँस जलन का लिखती है इतिहास नया,
कैसे भूलँगा मैं इतने अहसानों को ।
नन्हे सिरपर अंधियारे का पर्वत लेकर
अब तक मेरा जीवन दीपक-सा जलता है।
बदला-बदला व्यवहार तुम्हारा खलता है।
है बहुत दिनों की बात कि गौरी गंगा ने,
डाला अपना भुजहार हिमालय के उस पर।
लेकिन देखा दो दिन में चाँद-सितारों में
चल पड़ी अकारण ही वह रूठी-सी मुड़कर।
निष्ठुर गंगा सागर से मिलने चली गई,
लेकिन अब तक निर्दोष हिमालय घुलता है।
बदला-बदला व्यवहार तुम्हारा खलता है॥
जो मेरे साथ हुई घटना या दुर्घटना,
वह नई नहीं, सदियों से होती आई है।
हिमगिरी ने गंगा से, सागर ने चन्दा से,
अपराध बिना ही घोर यातना पाई है।
जितना गहरा विश्वास प्यार दिखलाता है,
उतना ही ज्यादा रूप प्यार को छलता है।
बदला-बदला व्यवहार तुम्हारा खलता है।
पूछो मत मेरी बात, प्यार की गलियों के,
मुझको कंकड़-पत्थर भी प्यारे लगते हैं।
सुधियों के नीले अम्बर पर बिखरे-बिखरे,
मुझको अपने आँसू भी तारे लगते हैं।
बन गई तुम्हारी शक्ति तुम्हारी निठुराई,
मेरी भावुकता ही मेरी दुर्बलता है।
बदला-बदला व्यवहार तुम्हारा खलता है।
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Hindi poems by Ram Kumar Chaturvedi "Chanchal"
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