तुम्हारे ध्यान में डूबा हुआ मैं मौन वैठा था
बगीचे में, जहाँ पर हैं मधुर झुरमुट चमेली के ।
सुलझने के प्रयासों में उलझता जा रहा था मैं,
न खोजे मिल रहे थे सूत्र जीवन की पहेली के।
बहुत सोचा कि जब संघर्ष में दिन-रात खपना है,
मुझे अधिकार ही क्या है प्रणय की बात करने का ?
मुझे अवकाश ही कब है मधुर सपने सँजोने का?
तुम्हारे पंथ में अपने दृगों के दीप धरने का?
तुम्हारी ओर से दो शब्द आदर के मिले हैं पर
कलम का मैं अकिंचन एक बस मज़दूर ही ठहरा!
न खारा नीर छू सकता कभी शशि की मधुरता को,
कहे सागर भले कोई, मगर मजबूर ही ठहरा!
तुम्हारे और मेरे बीच जब इतना बड़ा अन्तर
तुम्हें मैं भूल जाऊँ, बस यही कल्याणकारी है।
मगर मैं क्या करूं? फिर-फिर हृदय विद्रोह करता है,
हटाता हूँ, मगर फिर भी नहीं हटती खुमारी है।
तुम्हारा रूप मेरी दृष्टि का ही अंग है मानो,
सितारों की चमक में तुम, फुहारों की लचक में तुम
बगीचे में तुम्हारी ही मधुरता झूमती दिखती,
गुलाबों की गमक में तुम, चमेली की महक में तुम!
निकल आया रूपहला चन्द्रमा काली घटाओं से,
वधू घूँघट हटाकर ज्यों अचानक मुस्करा दी हो!
उमस के बीच में सहसा लगी ठण्डी हवा बहने,
किसी ने झूमकर जैसे कहीं पायल बजा दी हो!
हिले झुरमुट चमेली के, हुई कुछ रोशनी जैसी,
अरे, यह सत्य है या स्वप्न? सचमुच आ गई हो तुम।
तुम्हारा मन्द मुस्काना, दृगों का मूक अभिवादन,
पपीहा ‘पी’ न कह पाया, घटा-सी छा गई हो तुम!
हृदय की मणि! तुम्हारी यह चमक इतनी अनोखी है,
कि मेरे होश की लौ चमचमाना भूल जाती है।
समय कैंची चलाना तो न पल-भर भूलता है, पर
उमर की डोर तो मदहोश होकर झूल जाती है!
हृदय की मणि! स्वयम् तुम आज मेरे पास आई हो,
बड़ा सौभाग्य है मेरा, मगर कैसे बताऊँ मैं! ।
सभी को ज्ञात है अच्छी तरह से रंकता मेरी,
कहाँ तुमको बसाऊँ मैं? कहाँ तुमको छिपाऊँ मैं?
किसी का सुख न फूटी आँख भी जग को सुहाता है,
मुझे भय है मुझे मणि की जगत चोरी लगाएगा!
क्षमा कर दो, न मेरी आँख में तुम स्वप्न बन छाओ!
मुझे भय है, किसी दिन स्वप्न मेरा टूट जाएगा!
भला, मणि को कहाँ तक रंक की कुटिया छिपाएगी,
किसी प्रासाद के रनिवास की शोभा बढ़ाओ तुम!
गरीबी से, विषमता से, मुझे संघर्ष करने दो,
मुकुट में चमचमाओ, दमदमाओ, मुस्कराओ तुम!
जिनकी कथनी दिन जैसी है,
जिनकी करनी रात!
उनसे क्या सम्बन्ध हमारे,
उनसे कैसी बात!
भ्रम को गलबाँही दे-देकर
कब तक सत्य चले?
घुंघरू जब घायल करते हों,
कब तक नृत्य चले?
उन्हें सुधा का दानी कहकर दें कब तक सम्मान!
जिनके स्वर्ण-कलश में केवल है विष की सौगात!
उनसे क्या सम्बन्ध हमारे,
उनसे कैसी बात?
जिसकी कीर्ति-कथा पग-पग पर
निष्ठा बेच चली,
उस महानता से तो अपनी
लघुता बहुत भली।।
उनके साथ कहाँ तक जाएँ हम मंज़िल की ओर?
भूल-भुलैयों तक जाने की है जिनकी औकात!
उनसे क्या सम्बन्ध हमारे,
उनसे कैसी बात?
कोकिल और पपीहे लेंगे
क्या उस तरु का नाम,
जिसके नीड़ सदा देते हों
गिद्धों को विश्राम!
जिनके दामन में अँधियारा और झकोरे हैं,
दीपों को आशीषें देंगे कब तक झंझावात?
उनसे क्या सम्बन्ध हमारे,
उनसे कैसी बात?
ठहर जाऊँ, घड़ी-भर बात कर हूँ,
मगर इतना मुझे अवकाश कब है?
समय के पाँव बढ़ते जा रहे हैं,
कि यह दुनिया बदलती जा रही है।
हमारी जिन्दगी है धार ऐसी
कि जो दिन-रात चलती जा रही है।
धरित्री जो तुम्हें जड़ दिख रही है,
निरन्तर वह धुरी पर घूमती है।
गगन में झूलती नक्षत्र-माला
चरण गति के निरन्तर चूमती है।
कई तूफान आँचल में समेटे
निगोड़ी साँस दौड़ी जा रही है।
इसे रोकें कि मुड़कर बात सुन ले,
मगर ऐसा इसे अभ्यास कब है? |
ठहर जाऊँ, घड़ी-भर बात कर हूँ,
मगर इतना मुझे अवकाश कब है?
पहाड़ों के हृदय में भी व्यथा है,
किसी से वे मगर कहते नहीं है।
हमारी एक कमजोरी यही है
कि हम चुपचाप दुख सहते नहीं हैं।
यहाँ हर रोज कलियाँ सूखती हैं,
यहाँ हर रोज सपने टूटते हैं;
हिलोरें शीश धुनती जा रही हैं,
किनारे रोज पीछे छूटते हैं।
उठाता है करोड़ों हाथ सागर,
मगर कब चाँद को वह छू सका है?
यहाँ पुरती किसी की आस कब है?
यहाँ बुझती किसी की प्यास कब है?
ठहर जाऊँ, घड़ी-भर बात कर लँ,
मगर इतना मुझे अवकाश कब है?
तुम्हारी आह में कितनी तपिश है,
इसे मेरा हृदय ही जानता है।
तुम्हारे गीत में कितनी कशिश है,
महज मेरा हृदय पहचानता है।
मगर संसार ऐसा कारवाँ है।
कि जो बेपीर बढ़ता जा रहा है।
इसे फुरसत कहाँ यह जानने की
कि कोई रो रहा या गा रहा है।
यहाँ तो कर्म की लू चल रही है,
गगन है तप्त, धरती जल रही है।
सचाई की मरुस्थल-सी तपन में
पनपता स्वप्न का मधुमास कब है?
ठहर जाऊ, घड़ी-भर बात कर लँ,
मगर इतना मुझे अवकाश कब है?
मिली है जिन्दगी, जीना पड़ेगा,
हृदय के घाव को सीना पड़ेगा!
हलाहल सामने यदि आ गया है,
उसे भी प्यार से पीना पड़ेगा!
बटोही हूँ, मुझे चलना पड़ेगा,
हृदय को दर्द में ढलना पड़ेगा!
अँधेरे में, भयंकर आँधियों में,
तपस्वी दीप-सा जलना पडेगा!
हमारे प्राण ही जब बँध गए हैं,
अगर तन दूर तो अफसोस क्या है?
जिसे संसार कंचन मानता है,
मुझे उसे धूल पर विश्वास कब है?
ठहर जाऊँ, घड़ी-भर बात कर लँ,
मगर इतना मुझे अवकाश कब है?
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