कौन है जो नहीं तुमको जानता है?
यह भरे बादल सरीखा वेश सबका नित्य पहचाना हुआ।
क्षीण विद्युत-रेख-सी काया तुम्हारी,
घोर चिन्ता से सघन कुन्तल तुम्हारे,
आँसुओं के बिन्दुओं-सी तरल आँखें,
गरल की रेखा सरीखे ओंठ पतले!
झूमती गहरी निराशा-सी तुम्हारी स्याह साड़ी,
हम सभी पहचानते हैं।
इस जगत में सब जगह घूमी-फिरी हो तुम।
कुशल अभिनेत्री, अनोखी सुन्दर हो तुम।
विश्व की अभिनेत्रियों से लोग जब मिलते,
अचानक घेरकर उनको
बढ़ा कर डायरी अपनी
सभी यह याचना करते कि
मीठे शब्द दो लिख दें।
अगर सम्भव न हो तो
सिर्फ ‘आटोग्राफ' ही दे दें।
मगर तुम हो कि
तुमको घेरने से लोग डरते हैं।
समय के यान से आकर
अचानक तुम उतरती हो।
कभी मेरे, कभी इनके,
कभी उनके यहाँ जातीं ।
कभी घण्टों, कभी दिवसों,
कभी महीनों, कभी बरसों
जहाँ चाहो ठहर जातीं ।
बुलाकर पास लोगों को
मँगाती ‘डायरी’ उनसे ।
बिना अनुरोध के ही,
तुम अनेकों पंक्तियाँ लिखतीं ।
बिना संकोच के चुपचाप ‘आटोग्राफ' दे देतीं ।
न कोई फीस लेती हो,
न कुछ मनुहार करतीं।
अनोखी सुन्दरी हो तुम।।
अनेकों बार मेरे भी यहाँ आई-गई हो तुम ।।
हुई हैं प्यार से बातें
कभी घण्टों, कभी हफ्तों ।
मगर इस बार मेरे पास बरसों से रूकी हो तुम।
बड़ी भारी कृपा है जो मुझे अपना समझती हो।
ठहरने योग्य, रहने योग्य मेरा घर समझती हो।
अचानक आज यों ही घूमने
बाहर गई जब तुम,
उठाकर जिन्दगी की ‘डायरी’ मैंने जरा देखी
तुम्हारे नील ‘आटोग्राफ' को हर पृष्ठ पर पाया।
कहीं कोई जगह, कोई सतर बाकी नहीं छोड़ी
इरादा कर लिया है आज यह मैंने कि
जब तुम लौट करके आज आओगी,
तुम्हीं से प्रश्न पूढुंगा
कि ‘आटोग्राफ बुक' को 'नोटबुक' कैसे बना डाला?
बिना मांगे हुए क्यों लाख ‘आटोग्राफ' दे डाले?
इधर पिछले दिनों में या महीनों में
न ‘आटोग्राफ' का ग्राहक मिला शायद तुम्हें कोई।
कसर सबकी निकाली सिर्फ मेरी ‘डायरी' पर ही।
सुनो, ओ, वेदना-रानी! नहीं अच्छा किया तुमने
कि सुख के और सुविधा के
मधुर हस्ताक्षरों के हेतु पन्ना भी नहीं छोड़ा।
सजा इसकी यही है बस कि
मेरी ‘डायरी’ अब तुम सँभालोगी।
लिखा है सिर्फ पहले पृष्ठ पर ही नाम बस मेरा
रँगे हैं और पन्ने तो तुम्हारे नाम से केवल ।
कहो?-
उपहार के दो शब्द पहले पृष्ठ पर लिख दॅू॔ ?
कहो तो नाम अपना काट दॅू॔
अपनी कलम से ही।
कहो तो फाड़ दूँ अपने करों से
नाम का पन्ना।
तुम्हारी 'डायरी' है यह,
तुम्हारी ही रहेगी भी।
कभी संसार दखेगा,
अनोखी 'डायरी' है यह
कि जिसमें वेदना ही वेदना के दस्तखत लाखों ।
सदा हस्ताक्षरी देती रहोगी
इस जगत को तुम।
मगर अनुरोध मेरा है कि
बस इतनी कृपा करना -
किसी की रम्य 'आटोग्राफ-बुक' को तुम
सुलेखन के लिए अभ्यास-पुस्तक मत बना लेना।
ये पुराने पत्र भी मन को बड़ा सन्तोष देते हैं।
खोल देते हैं मूंदे-से पृष्ठ जीवन के,
धूल की परतें हटाकर जोश देते हैं।
जोश-दुनिया से निरन्तर जूझने का,
जिस तरह जूझा किया बीते दिनों में।
जोश-विष के बीच अमृत खोजने का,
जिस तरह खोजा किया बीते क्षणों में।
हर पुराना पात्र
सौ-सौ यादगारों का पिटारा खोलता है,
मीत कोई दूर का, बिछुड़ा हुआ-सा,
पास आत है, लिपटता, बोलता है।
कान में कुछ फुसफुसाता है,
हृदय का भेद कोई खोलता है।
हर पुराना पत्र -
है इतिहास आँसू या हँसी का,
चाँदनी की झिलमिलाहट या अन्धेरे की घड़ी का।।
आस का, विश्वास का, या आदमी की बेबसी का।।
ये पुराने पत्र
जीवन के सफर के मील के पत्थर समझ लो,
मर चुका जो भाग जीवन का,
उसी के चिन्ह ये अक्षर समझ लो।
आप, तुम या तू
इन्हीं सम्बोधनों ने स्नेह का आँचल बुना है।
स्नेह यह समझे नहीं तो‘क्या लिखा है? क्या पढ़ा है? क्या गुना है?
ये पुराने पत्र -
जैसे स्नेह के पौधे बहुत दिन से बिना सींचे पड़े हों।
काल जिनके फूल-फल सब चुन गया है,
इन अभागों को भला अब कौन सींचे!
रीति यह संसार की सदियों पुरानी,
सींचने वाले नए पौधे हमेशा सींचते हैं।
इन पुरानी पातियों का क्या करूँ फिर?
(चार आने सेर भी लेगा न कोई ढेर रद्दी का पुराना)
क्या करूँ फिर?
क्या जला दें पातियाँ ये,
जिन्दगी के गीत की सौ-सौ धुनें जिनमें छिपी हैं।
किन्तु यह क्या? भावना क्यों काँपती है?
आग की लौ दूर ही क्यों हाँफती है?
फेंक दें यह स्वर्ण? लेकिन सोच हूँ फिर-
भस्म इसकी और भी महँगी पड़ेगी।
तब? जलाऊँगी नहीं मैं पातियाँ ये।
जिन्दगी भर की संजोई थातियाँ ये।
साथ ही मेरी चिता के ये जलेंगी।
दूर तक फैले शरद के मेघ,
और उनमें कुछ गुलाबी, कुछ सुनहला रंग!
रवि-चितेरा है अभी ही तो गया ।
अनमना-सा, कॅू॔चियाँ अपनी घुमा! ।
चित्रपट-सा रह गया आकाश है।
साँझ आई है यवनिका डालने,
आँजती काजल दिशा की आँख में।
भर रही है कुछ अजब-सी व्यग्रता
नीड़ की ममता विहग की पाँख में ।
एक तारा है पछाहीं व्योम में,
कुंतलों में मोगरे के फूल-सा।।
भूमि पर हैं झिल्लियाँ झनकारतीं।
दीप पुरवे में कहीं है जल रहा।
भूकते हैं श्वान दूरी पर कहीं, ।
आरती की झाँझ की आवाज़ सुन।
सर्प-सी पगडण्डियों की ओर से
आ रही है एक छायामूर्ति-सी,
जिस तरह आती किसी कवि-वक्ष में
दर्द-डूबे गीत की पहली कड़ी।
कौन हो तुम, आ रहे जो इस तरह
डगमगाती, लड़खड़ाती चाल से ?
हर चरण पर शब्द होता है कि ज्यों
आह उठती हो धरा के वक्षसे।।
तुम कृषक हो? आ रहे हो खेत से?
झूमती-गाती फसल के लोक से?
शीष पर गट्ठर, हृदय पर बोझ ले?
घाम से काला हुआ मुखड़ा,
मगर हाथ बेटी के न पीले हो सके?
आँख से गंगा बहुत उमड़ी,
मगर पग महाजन के न गीले हो सके?
बैल जोड़ी हो गई बीमार है?
या कि लड़का है न कहना मानता?
या किसी से बात कड़वी हो गई?
या मिला कोई दुखद सन्देश है?
चल रहे हो लड़खड़ाते वाक्य से,
क्या तुम्हारी खिन्नता का भेद है?
मित्र! तुम तो आ रहे हो खेत से
झूमती-गाती फसल के लोक से!
इसलिए कुछ गुनगुनाना चाहिए!
पाँव मस्ती में बढ़ाना चाहिए!!
किन्तु तुम तो दिख रहे ग़मगीन हो!
किन दुखों, किन उलझनों में लीन हो?
हम उदासी फिरें तो ठीक है,
क्योंकि हम हैं लोग बाबू-वर्ग के!
फाइलों के ढेर के नीचे दबे!
चन्द नोटों के लिए बिगड़े, बिके!
किन्तु तुम तो दूत हो निर्माण के!
वायु-से घूमो-फिरो स्वच्छन्द तुम,
मुक्त भू पर, मुक्त अम्बर के तले।
धूल को कंचन बनाते हो तुम्हीं,
फूल काँटों में खिलाते हो तुम्ही।
रक्त को उर्वर बनाते हो तुम्हीं।
स्वेद से मोती उगाते हो तुम्हीं।।
सभ्यता जिसमें छिपाती लाज है
वह रूई भी तो उगाते तो तुम्हीं,-
स्वयम् अधनंगी दशा में घूमकर! ।
यह तुम्हारी देह है फौलाद-सी,
चाम जिस पर है कवच-जैसी चढ़ी!
छिन्न कर सकते नहीं जिसको कभी
वाण सर्दी, ग्रीष्म या बरसात के!
तुम नए युग के नवीन दधीचि हो,
हड्डियों का दान देते नित्य ही।
कम नहीं हो तुम किसी भी कर्ण से
शूरता में, धैर्य में या त्याग में।
भीष्म-जैसा प्रण तुम्हारा है अटल।
बिद्ध वाणों से तुम्हारी देह है!
किन्तु तुम हो भूमि पर चल-फिर रहे।
हो नहीं लेटे पितामह की तरह
उत्तरायण की प्रतीक्षा में विकल!
कोई देव तुम नभ के नहीं!
इस क्षमाशीला धरा के पुत्र हो!-
फोड़ दे हल से कि जो चट्टान को,
जो कि हँसिए की चमकती धार से
साफ कर दे दूर तक मैदान को,
वह शरद की इस सुहानी साँझ में
सिर झुकाए राह पर गुमसुम चले,
बोझ चिन्ता का लिए मन-प्राण पर!
तुम अगर रोए-
हिमालय के नयन भर आएँगे!
मुस्कराओ भी तनिक श्रम-देवता!
तुम उदासी के लिए जन्मे नहीं!
हाँ, उठाओ वज़ जैसे हाथ में
वह प्रखर हँसिया सुबह के सूर्य-सा।
और काटो, और काटो वेग से,
दूर तक फैली
अँधेरे और चिन्ता की फसल!
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