एक तार टूट-टूट जाय तो
बीन को नवीन तार चाहिए!
था जिन्हें रखा बहुत सँवार कर,
था जिन्हें रखा बहुत दुलार कर,
रंग एक बार के उतर गए,
फूल एक बार के बिखर गए।
बाग चुप रहा समय निहारकर,
किन्तु, कह उठी पिकी पुकारकर,-
‘इक बहार रूठ-रूठ जाय तो
बाग को नई बहार चाहिए।'
एक तार टूट-टूट जाय तो
बीन को नवीन तार चाहिए।
ताज आग का सँवारता रहा,
पंथ भोर का निहारता रहा;
किन्तु दीप की लगन बिखर गई,
स्नेह चुक गया, शिखा सिहर गई।
दीप त्रस्त हो लगा गुहारने,
किन्तु मृत्तिका लगी पुकारने
‘एक स्नेह-कोष रीत जाय तो
स्नेह की नवीन धार चाहिए!
एक तार टूट-टूट जाय तो
बीन को नवीन तार चाहिए!
उड़ चला विहंग तृण लिए हुए,
प्यार का अकम्प प्रण लिए हुए;
किन्तु, क्रुद्ध आँधियाँ मचल गईं,
तृण बिखेर, नीड़ को कुचल गईं,
लुट गया विहंग, छा गई निशा,
किन्तु फिर लगी पुकारने उषा,-
‘एक नीड़ टूट-फूट जाय तो
डाल को नया सिंगार चाहिए।'
एक तार टूट-टूट जाय तो
बीन को नवीन तार चाहए!
प्राण स्वप्न लोक में रमे रहे,
और, नींद में नयन लगे रहे!
पर, अजान ही हृदय उठा धड़क,
काँपते हुए खुले सजल पलक!
नींद ही रही न स्वप्न ही रहा,
किन्तु, तप्त अश्रुधार ने कहा
‘एक स्वप्न टूट-टूट जाय तो
आँख को नया खुमार चाहिए।'
एक तार टूट-टूट जाय तो
बीन को नवीन तार चाहिए!
मैं तुम्हें सदा दुलारता रहा, प्रा
ण में बसा, सँवारता रहा;
किन्तु एक दिन कहार आ गए,
पालकी उठा तुम्हें लिवा गए!
हर शपथ ज्वलित अँगार हो गई,
जिन्दगी असह्य भार हो गई;
जब हृदय लगा चिता सँवारने,
व्योम के नखत लगे पुकारने; ।
‘एक मीत साथ छोड़ जाय तो
प्यार की नई पुकार चाहिए।'
एक तार टूट-टूट जाय तो
बीन को नवीन तार चाहिए।
अँधियारे में जलती मशाल लाते हैं।
लोगों को है तकलीफ़ कि हम गाते हैं।
मोती जैसे नभ के तारे लगते हैं,
लोरी के स्वर प्यारे-प्यारे लगते हैं।
अँधियारे की लीला न्यारी होती है,
निद्रा सबको बेहद प्यारी होती है।
महदोशी में सारा आलम खोता है।
फिर सपनों का रंगीन खेला होता है।
‘जागते रहो', 'जागते रहो' चिल्लाते
प्रहरी जैसे हम ठीक तभी आते हैं!
लोगों को है तकलीफ कि हम गाते हैं।
लोगों का है सौभाग्य कि वे सोते हैं,
हम प्रहरी का कर्तव्य-भार ढोते हैं।
चोरी का कोई काम न होने देंगे।
बस्ती को हम बदनाम न होने देंगे।
यदि नहीं रहेंगे अलख जगाने वाले
तो गली-गली तोड़े जाएँगे ताले!
निद्रा सबको सपनों तक ले जाती है।
हम सपनों से सच्चाई तक लाते हैं।
लोगों को है तकलीफ़ कि हम गाते हैं।
हम भी होते यदि ठकुरसुहाती वाले
जी भरकर पीते और पिलाते प्याले ।
क्रीड़ा करती जयजयवन्ती तारों में,
खो जाते पग-पायल की झंकारों में।
फिर किसी सेज पर कहीं ढेर हो जाते।
रेशमी भुजाओं में बँधकर खो जाते।
क्या करें? अग्नि-वीणा लेकर जन्मे हैं,
भैरव रागों से ही अपने नाते हैं,
लोगों को है तकलीफ़ कि हम गाते हैं।
अब कान खोलकर सुनें-कि जो लेटे हैं!
हम सरस्वती के जागरूक बेटे है।
सारी दुनिया खामोश कि जब सोती है।
आवाज़ हमारे ही जिम्मे होती है।
कवि होने का दायित्व जानते हैं हम।
इसलिए जागरण-यज्ञ ठानते हैं हम।
थक जाए चाहे तन का रेशा-रेशा।
कैसे छोड़े पहरेदारी का पेशा।।
सन्ध्या जिनको घर-घर में सँजो गई थी,
हम उन्हें सुबह सूरज तक पहुँचाते हैं।
लोगों को है तकलीफ़ कि हम गाते हैं।
न कागज को मनाते हैं, न स्याही को सताते हैं,
लहूवाले लहू से देश का नक्शा बनाते हैं!
पहाड़ों-से इरादे हैं, समन्दर-सी रवानी है,
हमेशा आग से अठखेलियाँ करती जवानी है।
दिशाएँ ध्यान से सुनतीं, हवाएँ गुनगुनाती हैं,
सितारों की जुबानों पर शहीदों की कहानी है।
जिन्हें सुविधा नहीं भाती, न समझौते सुहाते हैं।
गगन को ओढ़ते हैं और धरती को बिछाते हैं!
शहादत को न समझेंगे पदों पर ऐंठनेवाले,
कुचक्रों में ढले सिंहासनों पर बैठनेवाले!
तिजोरी भक्ति है जिनकी, कुटिलता शक्ति है जिनकी
खुशामद की नदी में ज़िन्दगी-भर पैठनेवाले!
शहादत एक सौदा है वतन पर जान देने का!
जिन्हें स्वीकार है, वे मौत से नजरें मिलाते हैं!
स्वयम् माथा झुकाता सामने भूगोल आता है,
यशोगाथ स्वयम् इतिहास पढ़-पढ़कर सुनाता है।
कि जिसकी छाँह में संसार सुख की साँस लेता है,
शहादत वृक्ष है, जिसको युगों का तप उगाता है।
न चाँदी बोल पाती है, न सोना तोल पाता है,
कुबेरों के खजाने धूल में आँसू बहाते हैं!
जिन्हें रफ्तार प्यारी है, उसी में चूर रहते हैं,
शहीदों के चरण विज्ञापनों से दूर रहते हैं!
कभी अन्याय से टक्कर, कभी संघर्ष शोषण से,
सदा ज्वालामुखी ये आग से भरपूर रहते हैं!
न गोली रोक पाती है, न फाँसी टोक पाती है,
कि कारागार को भी मुक्ति का मन्दिर बनाते हैं!
शहीदों का सतत संघर्ष ही ईमान होता है,
रहे बेदाग आजादी, यही अरमान होता है।
वतन की धूल ही इनके लिए है स्वर्ग का चन्दन,
कि इनका इष्ट जीता-जागता इन्सान होता है!
युगों की आँधियों में भी अँधेरा चीरती हैं जो
लहू से सींचकर ऐसी मशालों को जलाते हैं!
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