धरती न लाश बन पाएगी,
अम्बर न कफ़न बन पाएगा,
बारूद बिछानेवालों, तुम कब तक बारूद बिछाओगे?
जब-जब धरती जलती,
तब-तब बादल घिर आया करते हैं,
ज्वालामुखियों की छाती पर तिनके लहराया करते हैं।
जिससे बौराते आम और खिलते हैं दीवाने पलाश,
मुखरित होते गुलमुहर और नर्तन करते हैं अमलतासउस
कोयल की स्वरलहरी को लपटों में बाँध न पाओगे!
सूरज की नन्हीं किरण सात रंगों की छटा सजाती है,
पुरवाई की हर लहर गन्ध नन्दनवन की बरसाती है।
जिसको तुम धूल समझ बैठे, वह वसुन्धरा कहलाती है,
शिव-रूप हिमालय से गंगा पीयूष बहाती आती है!
मृत्युंजय जीवन पर कैसे मरघट का रंग चढ़ाओगे?
तारों ने कब यह प्रश्न किया अम्बर का बटवारा होगा!
कोई भी लहर न चिल्लाई-सागर का बटवारा होगा!
बटवारे के शौकीन चन्द इन्सान रहे हैं धरती पर,
जब-तब यह लगता है, कि ईंट-पत्थर का बटवारा होगा!
धरती अमृत-घट है, इसको लूटोगे तो लुट जाओगे!
सन्देहों में जीनेवाले सन्देहों में मर जाते हैं,
विश्वासों पर मरनेवाले विश्वास अमर कर जाते हैं।
माँ का आँचले फाड़ोगे तो वात्सल्य कहाँ से आएगा?
सभ्यता बेच खाओगे तो मुट्ठी में क्या रह जाएगा?
सूरज होता है प्यार, धूल में कब तक उसे छिपाओगे?
पागल है वह विज्ञान, जिसे अंगार बिछाना आता है,
बेहूदा है वह धर्म, खून में जिसे नहाना आता है।
ईश्वर मिलना तो दूर, आदमी जहाँ आदमीयता हारे,
ईंटों के खेल-तमाशे हैं मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारे!
ओ चन्दन से लिपटे भुजंग! अपना विष व्यर्थ गॅवाओगे!
मेरी हर नादानी ने पाठ पढ़ाया है,
हर आँसू ने मुझको गाना सिखलाया है।
मेरे जीवन में सौ-सौ दुर्बलताएँ हैं,
मेरे जीवन में सौ-सौ असफलताएँ हैं।
दुर्बलाओं ने ही लड़ना सिखलाया है,
असफलताओं ने ही बढ़ना सिखलाया है।
मानव मज़बूत बने यदि सह-सह कर घातें,
गौरव के लायक हैं सब लज्जा की बातें।
घावों से ही सीने की शोभा बढ़ती है,-
अपमानों ने मेरा सम्मान बढ़ाया है।
हर आँसू ने मुझको गाना सिखलाया है।
जिस दिन मैंने मंजिल पर कदम बढ़ाया था,
तूफानों ने मुझको कितना धमकाया था।
काँटों की चिर-प्यासी नोंके मुस्काई थी।
आफत के मेघों ने आँखें दिखलाई थीं।
विपदाओं ने मेरा पौरुष भड़काया ही।
मैं थका गिरा पर उठकर कदम बढ़ाया ही।
मंजिल न मिली, इसका मुझको अफ़सोस नहीं,
बाधाओं का दिल तो मैंने दहलाया है।
हर आँसू ने मुझको गाना सिखलाया है।
जिनको अपना समझा, वे घोर पराए थे,
सपने थे, आँखों को भरमाने आए थे।
में बसने वाले ही उर को हिला गए,
आए ऐसे मेहमान कि घर को जला गए।
मधुपान करानेवाले ही विष पिला गए,
जिनको कंचन समझा, मिट्टी में मिला गए,
अपनी इन सब भूलों का मैं आभरी हूँ।
दुनियाँ क्या है, इन भूलों ने समझाया है।
हर आँसू ने मुझको गाना सिखलाया है।
मन नए-नए मधुकर-सा कितना भरमाया।
फूलों पर अलसाया, कलियों पर मँडराया।
मधु कम पाया, काँटों में अधिक बिंधी पाँखें ।
गाने को पहुँचा था, भर-भर आई आँखें ।
माना, मृग-तृष्ण में फँसना नादानी है,
पर भूल न जो करती क्या ख़ाक जवानी है।
हर बार समय की आँधी ने वरवाद किया।
हर बार तृणों से मैंने नीड़ बनाया है।
हर आँसू ने मुझको गाना सिखलाया है।
ठुक-पिट करके फौलाद हुआ मेरा सीना,
मैं सीख गया हूँ मिट-मिटकर जग में जीना,
अब तो मेरे सीने से चोटें डरती हैं,
आहें मुझ तक आते ही आहें भरती हैं।
हिल-हिल मेरे विश्वास हुए चट्टानों से,
मैं खेल रहा हूँ लहरों से तूफ़ानों से।
आगे बढ़ पाया हूँ कि नहीं, यह ध्यान नहीं,
कम से कम पग पीछे तो नहीं हटाया है।
हर आँसू ने मुझको गाना सिखलाया है।
उसको प्राणों का प्राण कहो
जिस पर हर साँस निछावर हो!
मधुवन की छवि का क्या कहना,
मधुवन में हैं अगणित कलियाँ !
सन्देह नहीं, आकर्षक हैं
कुंजों की ये मादक गलियाँ!
कुंजों-कुंजों में क्यों घूमो?
कलिका-कलिका पर क्यों पूँजो?
उस एक कली को प्यार करो,
जिस पर मधुमास निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो
जिस पर हर साँस निछावर हो!
उत्थान-पतन की ये लहरें
उठती-गिरती ही रहती हैं।
ये धूप-छाँह की तसवीरें
बनती-मिटती ही रहती हैं!
वह क्या घटना, जो बालू के
पदचिन्ह सरीखी मिट जाए?
‘घटना' उस घटना को समझो
जिस पर इतिहास निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो
जिस पर हर साँस निछावर हो!
मत ‘प्यार' कहो माटी के प्रति
जगने वाले आकर्षण को!
बरसात सुधा की मत समझो
दो क्षण के इस रसवर्षण को!
वह ‘रूप' नहीं, जिसके कारण
तृष्णा या आशा ही जागे,
वह रूप ‘रूप' कहलाता है,
जिस पर विश्वास निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो
जिस पर हर साँस निछावर हो!
लाखों हैं ये आकाश कुसुम,
किस-किस पर हाथ बढ़ाओगे?
अम्बर की धुंधली गलियों में
कब तक आँखें भटकाओगे?
टिमटिम किरणों में क्यों भटको?
लाखों तारों में क्यों अटको?
उस एक चन्द्रमा को पूजो,
जिस पर आकाश निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो
जिस पर हर साँस निछावर हो!
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Hindi poems by Ram Kumar Chaturvedi "Chanchal"
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