अपनी ढिलमिल आशाओं को विश्वास बनाकर तो देखो!
बनते-बनते बन जाएगा, इतिहास बनाकर तो देखो!
सूनी डालों को मत देखो.
झरते पातों पर मत रोओ;
टूटे सपनों पर सिर न धुनो,
बीती बातों पर मत रोओ!
काँटे कलियाँ बन जायेंगे,
चुप्पी गुंजन बन जाएगी!
मधुऋतु तो दौड़ी आएगी, आवाज लगाकर तो देखो!
अपनी ढिलमिल आशाओं को विश्वास बनाकर तो देखो!
बनते-बनते बन जाएगा, इतिहास बनाकर तो देखो!
जिसको तुम ‘पीड़ा' कहते हो,
प्राणों का एक खिलौना है;
सुख के सूरज की किरणों को
आँसू की ओस बिछौना है!
सर्दी-गर्मी की छाया में
जीवन की फसलें झूमेंगी,
चिन्ताओं की धरती पर तुम उल्लास उगाकर तो देखो!
अपनी ढिलमिल आशाओं को विश्वास बनाकर तो देखो!
बनते-बनते बन जाएगा, इतिहास बनाकर तो देखो!
मधु के तुम ठेकेदार नहीं,
विष के घट भी पीने होंगे;
घावों को जब मरहम न मिले,
अपने हाथों सीने होंगे।
छवि की गंगा लानी है तो
संकल्प भगीरथ का लाओ!
कैलाश झुकाएगा माथा, तुम पाँव बढ़ाकर तो देखो
अपनी ढिलमिल आशाओं को विश्वास बनाकर तो देखो!
बनते-बनते बन जाएगा, इतिहास बनाकर तो देखो!
लपटों की लाल चुनरिया से
शृङ्गार जवानी करती है।
अमरत्व निछावर होता है,
जब प्यार जवानी करती है।
बिजली, बादल, आँधी, पानी,
उजियाले और अँधेरे की -
चिन्ता न करो, अपने उर को आकाश बनाकर तो देखो!
अपनी ढिलमिल आशाओं को विश्वास बनाकर तो देखो!
बनते-बनते बन जाएगा, इतिहास बनाकर तो देखो!
स्वप्नदर्शी भी बहुत हैं, स्वप्नजीवी भी बहुत,
हो सके तो स्वप्न को आकार देने को जिओ!
हाथ पाए हैं नई फ़सलें उगाने के लिए
पाँव पाए हैं नई राहें बनाने के लिए।
पुष्ट कन्धे हैं नए बोझे उठाने के लिए,
कण्ठ पाया है नए ही गीत गाने के लिए!
रूढ़ियों का बोझ ढोने के लिए प्रतिभा नहीं,
आदमीयत को नए उद्गार देने को जिओ!
स्वेद-कण सबसे बड़ी उपलब्धि है संसार की,
पूछ देखा हर सुबह से, पूछ देखा शाम से!
सम्पदाओं से नहीं, सिंहासनों से भी नहीं,
आदमी का कद बढ़ा है आदमी के काम से!
शक्ति अणु-परमाणु की है तुच्छ जिसके समाने
सृष्टि को संकल्प का उपहार देने को जिओ!
आदमी का मन किरण की खोज में बेचैन है,
चाँद-सूरज और ये लाखों सितारे व्यर्थ हैं।
देह के श्रृंगार सै-सौ, प्राण में वैधव्य है,
ज्ञान या विज्ञान के उपहार सारे व्यर्थ हैं! |
हर अमावस का सही उत्तर छिपा है ज्योति में,
दीपकों की पंक्ति को आधार देने को जिओ!
लोग सागर मथ रहे हैं रत्न पाने को,
कौन है तैयार लकिन विष पचाने को?
जो कलाधर है, उसी का यह परम सौभाग्य है।
हाथ उसके ही बने हैं विष , उठाने को!
मृत्यु को भुजपाश में ले आज मृत्युंजय बनो,
हर गरल पीकर सुधा की धार देने को जिओ!
भाग जाओ दूर, ओ रंगीन सपनों,
पास आने का अभी मौसम नहीं है।
आदमी की आँख में आँसू भरे हैं,
गीत गाने का अभी मौसम नहीं है।
सभ्यता का यह सवेरा भी अजब है,
फूल की मुसकान आँसू में दबी है।
मुक्ति का सूरज गगन में उग रहा,
पर साथ ही उसके ग्रहण-छाया लगी है।
चेतना जो है जगाई सो न जाए,
‘रोशनी की यह कमाई खो न जाए।
जिस पसीने में सदी भीगी हुई है।
वह सुखाने का अभी मौसम नहीं है,
गीत गाने का अभी मौसम नहीं है।
पौध हरसिंगार की हम सींचते हैं,
पर उधर बारूद कोई है बिछाता ।
हम इधर निर्माण के तिनके संजोते,
पर उधर चिनगारियाँ कोई लुटाता।
क्रूर कंस प्रहार ही से मर सका था,
बाँसुरी का स्वर न जादू कर सका था।
वक्ष में यदि शक्ति हो तो शंख फूंको,
गुनगुनाने का भी मौसम नहीं है।
गीत गाने का अभी मौसम नहीं है।
भय अभी पगडण्डियों पर घूमता है,
भूख सड़कों पर अभी हुँकारती है।
विश्व-मन्दिर में अभी बलि हो रही है,
दंभ की फिर-फिर उतरती आरती है।
प्यार की फसलें जलाई जा रही हैं,
और संगीनें उगाई जा रही हैं।
पी सको तो ये गरल के घट उठा लो,
मधु उठाने का अभी मौसम नहीं है।
गीत गाने का अभी मौसम नहीं है।
आदमी की देह वस्त्रों में ढंकी है,
आचरण में नग्नता आई हुई है।
चन्द्रमा पर खोज जीवन की मची है,
मुर्दनी सी भूमि पर छाई हुई है।
खून के धब्बे हिमालय पर लगे हैं, ।
बर्फ पर भी आग के अंकुर उगे हैं।
नरक से ही इस धरित्री को बचा लो,
स्वर्ग लाने का अभी मौसम नहीं है।
गीत गाने का अभी मौसम नहीं है।
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Hindi poems by Ram Kumar Chaturvedi "Chanchal"
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