कमल अभी तक खिले नहीं हैं, गुंजन के सिलसिले में नहीं हैं।
या तो सूरज उगा नहीं है, या फिर कुछ-कुछ रात शेष है।
वातावरण उदास अभी है,
दिखती ज्योति-तरंग नहीं है।
धरती पर चेतना नहीं है,
नभ में अभी उमंग नहीं है।
पंथी की पदचाप नहीं है,
पंछी एक नहीं गाता है!
सबकुछ है सोया-सोया-सा,
क्या प्रभात ऐसे आता है?
अभी अँधेरे पर प्रकाश की होने को शह-मात शेष है।
या तो सूरज उगा नहीं है, या फिर कुछ-कुछ रात शेष है!
शिखरों पर सोना कब वरसा?
लहरें कहाँ हुईं सिन्दूरी?
मंगलमई प्रभातीवाली
शर्ते कहाँ हुई हैं पूरी?
हुई कहाँ उन्मुक्त उड़ानें ?
कलरव की अभिव्यक्ति कहाँ है।
निशिचर छिपें, उलूक मौन हों,
वह ज्योतिर्मय शक्ति कहाँ हैं?
जागृति में गत्यावरोध की शायद कोई बात शेष है।
या तो सूरज उगा नहीं है, या फिर कुछ-कुछ रात शेष है!
रात न कहने से बीतेगी,
विज्ञापन से प्रात न होगा।
नगर-डगर आलोकित हो तो
किसे सबेरा ज्ञात न होगा?
घर-बाहर अँधियारा हो तो
लोग भला कैसे जागेंगे?
गीतों से आकाश गुंजाते
क्यों पंछी कोटर त्यागेंगे?
एक सही उत्तर पाने को प्रश्नों की बारात शेष है!
या तो सूरज उगा नहीं है, या फिर कुछ-कुछ रात शेष है!
क्या कहा? ‘मृत्तिका' ! ‘तुच्छ धूल’ !!
मुझसे निर्मित भूखण्ड सकल, मुझसे रंजित यह विश्व सकल।
मेरा कण-कण है अजर अमर, मैं मृत्यु-घड़ी-सी अमिट, अटल।
सह रही धूप, सह रही ताप, सह रही पुण्य, सह रही पाप,
आए कितने बादल घिर-घिर, मुझमें विलीन हो गए आप।
मचला जीवन, मचलीं लहरें, आँधियाँ चलीं, विद्रोह हुए,
फिर सृष्टि हुई, फिर प्रलय हुई, रह-रहकर मिलन-बिछोह हुए।
मैं शान्ति, क्रान्ति, मैं सत्य, भ्रान्ति, मैं चिर-कोमल, मैं चिर-कठोर ।
मैं ही कुरूप, मैं ही सुन्दर, मुझमें त्रिकाल, मैं ओर-छोर।
मैं ब्राह्माणी, मैं रूद्राणी, मैं सृष्टि-प्रलय की मूक मूल।
क्या कहा? ‘मृत्तिका' ! ‘तुच्छ धूल’ !!
मेरा आधार लिए जीवित, तृण, लतिकाएँ, वृक्षावलियाँ,
मेरी सुषमा से अभिसिंचित सुरभित उपवन, मुखरित कलियाँ।
यह नभ-चुम्बी उन्नत भूधर, मेरे ही उर का मधुर भार ।
यह रस-रंजित चंचल निर्झर, मेरे अन्तर का मृदुल प्यार।
मुझसे निर्मित सरिता का तट, मुझसे निर्मित सागर का तल,
मुझसे निर्मित यह नगर-डगर, मानवता को मेरा सम्बल।
मुझमें कवियों के मान छिपे, मुझमें अनेक विज्ञान छिपे ।
मैं धातुपूर्ण, मैं रत्नपूर्ण, मुझमें अदृष्ट तूफान छिपे।
मेरे इंगित पर नाच रहा यह फूल-फूल, यह शूल-शूल।
क्या कहा? मृत्तिका!', तुच्छ धूल!”
मुझसे पूछो, किसके घर में कितने दिन घी के दीप जले?
मुझसे पूछो, किन आँखों से कितने दिन खारे अश्रु ढुले?
मेरी छाती में लो टटोल, कितने सिंहासन चूर हुए।
हूँढो, कितने ही राजमुकुट उन्नत शीशों से दूर हुए।
ढूँढ़ो, मुझमें मजनू सोया, लैला का सूखा अश्रुनीर।
ढूँढ़ो, मुझमें है नूरजहाँ, मुझमें लुण्ठित है जहाँगीर ।
मेरे कण-कण में चूर्ण बने कितने अपूर्ण अरमान छिपे। |
कितने करुणा के गान छिपे, कितने अदृष्ट बलिदान छिपे।
मुझसे जागी, मुझमें सोई, यह दुख-सुख की दुनियाँ समूल
क्या कहा? ‘मृत्तिका!', तुच्छ धूल!!'
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।
मेरे पद-नूपुर की ‘रुनझुन’ सारे जग-जीवन का क्रन्दन।
मेरा विथकित उच्छवास एक, विस्तृत नभ-मण्डल का कम्पन।
ज्वालाओं में मेरा यौवन, तूफान लिए मेरा हर स्वर।
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।
परिवर्तनमय मेरा जीवन, भूकम्प लिए हैं चरण-चरण,
मेरे आने के चिन्ह कई, विद्रोह, युद्ध हुँकार, मरण।
मेरी ठोकर से क्षत-विक्षत होते विशाल उन्नत भूधर।
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।
मैं एक जगह कब रुकी रही? मैं इधर चली, मैं उधर चली,
मैं जिधर चली, जिस ओर चली, जागृति की जलती लहर चली
नर मुण्डों का शृंगार! नित्य भरता रहता मेरा खप्पर!
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।
मेरा हलका सा भू-विलास, जन-सागर का उत्थान-पतन ।
मेरा संकेतमात्र सौ-सौ ज्वालामुखियों का अग्नि-वमन।
मेरी पलकों के एक पतन में रंगमहल बनते खंडहर !
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।।
जब हँसती हूँ तब प्रलय-घनों में चमक-चमक उठती बिजली,
जब कभी फूंक मारी तब-तब अत्याचारों की नींव हिली।।
मेरे पद-चिन्हों पर बहते लोहू के वेग भरे निर्झर ।
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।
मैं इतिहास के पृष्ठों पर स्याही बन-बनकर फैल रही,
मैं सर्वनाश के झोंके दे साम्राज्यों से हूँ खेल रही।
मैं असफलताओं की रानी, बलिदानी हैं मेरे अनुचर।
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।
मैं भूख-प्यास के दृश्य दिखा, आतंकित कर देती जन-मन,
फिर जग उठते विप्लवकारी, जैसे घिरते सावन के घन ।
मुझसे ही तो गिरता समाज पाता है उठने का अवसर।
मैं नाच रही युग-युग से
अपने दीवाने पग धर-धर।
मेरे नूपुर की खनक प्रलय, मेरे कच-जालों में विषधर ।
नरमुण्ड खड़कते निमिष-निमिष, उड़ रहा अग्नि-अम्बर फर-फर ।
‘दिन-रात' घूमते जाते हैं, मेरे नर्तन की ताल अमर ।
मैं नाच रही हूँ युग-युग से
अपने दीवाने पग धरधर ।
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Hindi poems by Ram Kumar Chaturvedi "Chanchal"
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