रख नहीं सके कमजोर हाथ उसको सँभाल
हमने तुमको सौंपी थी जो जलती मशाल
शंखध्वनि के मतलब को तो जाना होता
आज़ादी की कीमत को पहचाना होता
पौरुष लगता है हथकड़ियाँ चटकाने में
सदियाँ लगती हैं एक मशाल जलाने में
क्षणभर में ही निर्णय ले लेना होता है।
फाँसी का फंदा या सुविधा की पुष्पमाल ?
रख नहीं सके कमजोर हाथ उसको सँभाल
हमने तुमको सौंपी थी जो जलती मशाल
तुम व्यस्त हो गए स्वार्थसिद्धि के धंधों में
सत्ता, कुर्सी, नोटों, वोटों, के फन्दों में
सिद्धियाँ सभी बेमतलब-सी हो जाती है।
पीढ़ियाँ ही जब ऐयाशी में खो जाती हैं।
उत्तरदायित्व नहीं तो उत्तर मिले कहाँ?
धरती से अम्बर तक केवल जलते सवाल
रख नहीं सके कमजोर हाथ उसको सँभाल
हमने तुमको सौंपी थी जो जलती मशाल
अपनी-अपनी ढपली है, अपना राग यहाँ
सपनों की खेती जली, आग ही आग यहाँ
है लूट, खून, चोरी, दंगा, हड़ताल यहाँ
अलगाव और आतंकवाद का जाल यहाँ
इतिहास भ्रष्ट, सभ्यता नष्ट, निर्माण ध्वस्त
खुशहाली बोने चले मगर पाया अकाल ।
रख नहीं सके कमजोर हाथ उसको सँभाले ।
हमने तुमको सौंपी थी जो जलती मशाल
आज़ादी का मतलब है सबके साथ न्याय
आज़ादी का मतलब है समता का उपाय
धरती के दुख-सुख के समान बँटवारे से
आज़ादी का मतलब है भाईचारे से
आजादी का मतलब है बलिदानी मस्तक
याचक बनकर सामने खड़ा है महाकाल
रख नहीं सके कमजोर हाथ उसको सँभाल
हमने तुमको सौंपी थी जो जलती मशाल
आँख में चिनगारियाँ मुसका रही है।
साँस में अँगड़ाइयाँ-सी ले रहे हैं
प्रलय के उन्चास दीवाने प्रभंजन! ।
मुट्ठियों में वज्र को भी पीस देने का
प्रबल संकल्प बन्दी हो गया है।
यह खुली मेरी चुनौती है तुझे दुर्भाग्य मेरे
खड्ग तेरा टूट जाएगा किसी दिन,
और मेरे वक्ष की चट्टान ज्यों की त्यों रहेगी।
वार करते हाथ थक जाएँ कभी तो
साँस ले लेना, सुखा लेना पसीना।।
पुनः दुगनी शक्ति से तू वार करना ।
और -
तेरे खड्ग की यदि धार कुंठित हो कभी तो
उसे मेरे वक्ष की चट्टान पर ही तेज़ करना।
युद्ध तेरा और मेरा धर्म का हो,
है तुझे सौगन्ध -
मुझको बीच में ही पीठ दिखलाकर कहीं मत भाग जाना!
वीरता के दर्प में भर जूझ मुझसे,
झेल तू भी वक्ष का तूफ़ान मेरा!
बस यही चिन्ता मुझे है आज केवल,-
रह नहीं जाए अधूरा कहीं तेरे भागने से
यह अथक रण-दान मेरा! ।
ध्यान ही मैंने नहीं तुझ पर दिया था,
तू समझता रहा मैं मुँह मोड़ता हूँ ,
त्रस्त होकर दूर तुझसे भागता हूँ।
तुझे शंका के लिए कारण मिले जोठीक भी थे! ।
जब कभी तूने किया उत्पात कोई,
जब कभी तूने शुरू की छेड़खानी,
लाल ओठों में सुधाकण खोजती-सी,
स्याह अलकों में सितारे हूँढ़ती-सी,
नर्म बाँहों में व्यथाएँ भूलती-सी,
व्यर्थ ही भटकी बहुत मेरी जवानी!
नायलोनी अंचलों की ढाल ओढ़े
मैं चला था वज्र के आघात सहने!
जब कभी तूने किया था वार कोई
पास मित्रों के गया मैं दर्द कहने,
स्नेह की सहयोगवाली बाँह गहने!
वह कभी पाई न मैंने!
मित्र मेरे, काश, मेरे शत्रु होते!
मैं कभी उनके भरोसे तो न रहता!
बहुत पहले ही तुझे ललकार देता!
आँख से उपहार में आँसू नहीं, अंगार देता!
खैर, मेरी भ्रान्तियों का मूढ़ युग भी
आज अन्तिम साँस अपनी ले चुका है!
मैं तुझे खुलकर चुनौती दे रहा हूँ -
सिर्फ अपनी दो भुजाओं के भरोसे!
तेज़ कर ले आज कुण्ठित खड्ग अपना,
वक्ष की चट्टान मैंने खोल दी है।
सन्धि की कोई करे यदि बात
तो धिक्कार उसकी ज़िन्दगी पर!
काँपता है हाथ?
फिर से मूठ को कसकर पकड़ ले!
मार फिर तलवार अपनी!
इस सुलगते वक्ष को
कुछ घाव-रूपी गुदगुदी महसूस करने का समय दे
मर्त्य होकर भी अमर हूँ भीष्म-सा मैं,
युद्ध में मुझ पर विजय पाना कठिन है!
मारना ही चाहता है यदि मुझे तू
ओ, कुटिल दुर्भाग्य मेरे!
तो शिखण्डी बन,
मुझे हथियार तजने के लिए
मजबूर कर दे!"
Copyright © 2021 ramkumarchaturvedichanchal.com - All Rights Reserved.
Hindi poems by Ram Kumar Chaturvedi "Chanchal"
We use cookies to analyze website traffic and optimize your website experience. By accepting our use of cookies, your data will be aggregated with all other user data.