कुछ मेरे मन की भी सुनजा, ठहर, अरी, लहरों की रानी
किधर चली तू नीली-नीली लहरों के ये जाल बिछाती?
हो जैसे कोई युवती अपने श्यामल कुंतल लहराती!
किधर चली पाषाण-उरोजों पर फेनिल कंचुकी सजाती ?
किधर चली कल-कल-कल गाती? किधर चली पायल छमकाती ?
किधर चली जल-मुक्ताओं के चमचम करते हार सजाए?
किधर चली तू दो कूलों के दीवाने भुजपाश बढ़ाए?
कभी सिसकती, कभी तड़पती, कभी मचलती, कभी उमड़ती
तुझसे ही मिलती-जुलती है यह मेरी नादान जवानी
कुछ मेरे मन भी सुनजा, ठहर, अरी, लहरों की रानी
नगर, ग्राम, वन में तू बहती, नगर, ग्राम, वन में मैं घूमा
तू पाषाणों से टकराती, मैंने वज्रों का मुँह चूमा
तू एकाकी बहती है तो मैं भी चलता हूँ एकाकी
अरी, बहुत मिलती मेरे-तेरे भावुक प्राणों की झाँकी
तू चलती अपनी धारा में कितने ही सैलाब दवाए
मैं चलता अपनी साँसों में कितने ही तूफ़ान छिपाए
तेरी पीर तुझी तक सीमित, मेरा दर्द मुझी तक सीमित
तेरी धारा में पानी तो है मेरी आँखों में पानी
कुछ मेरे मन की भी सुनजा, ठहर, अरी, लहरों की रानी
मानिनि, तूने नहीं किसी के आगे अपना हाथ बढ़ाया
मैंने भी तो नहीं किसी के आगे अपना शीश झुकाया
तने ताप सहा है लेकिन दुनिया को जलदान किया है।
मानवता के लिए, अरी, मैंने पग-पग बलिदान दिया है।
तुने पानी का वर पाया, मैंने वाणी का वर पाया
तु यदि सिसक-सिसक हँसती है, मैंने भी रो-रोकर गाया
आ,क्षणभर के लिए गले मिलकर मेरे सँग रोले, गाले,
‘प्यार' जिसे कहते, हम दोनों ने ही की है वह नादानी
कुछ मेरे मन की भी सुनजा, ठहर, अरी, लहरों की रानी
जबसे आया हूँ तेरे इस एकाकी पथरीले तट पर
कितनी छाँहे, कितनी किरणें, घूम गईं नयनों के पट पर
कितनी सुधियाँ जागी हैं नावों के उड़ते पाल देखकर
कितनी लहर उठी है छाती ये लहरों के जाल देखकर
कॉपा हूँ तट की गोदी में जलपरियों की माल देखकर
सिहर उठा हूँ तेरी धारा में अपना कंकाल देखकर
तेरा प्रियतम सिंधु, कि उसके जल जैसे ये आँसू खारे
कर इतना सत्कार कि इनको मत यों ही ठुकरा, कल्याणी
कुछ मेरे मन की भी सुनजा, ठहर, अरी, लहरों की रानी
यह पूनम की रात, चाँद के नीचे तेरा वक्ष खुला है।
धरती पर रूपा विखरा है, चाँदी से आकाश धुला है।
मैं नौका में मौन, कि मेरे उर-अंतर में पीर जगी है।
मेरी आँखों में जीवन की पूनम की तस्वीर जगी है।
मेरी देहधारिणी पूनम इस पूनम से भी गोरी है।
वह है मुझ से दूर कि जीवन अब तो सुधियों की डोरी है।
लहरों के उर पर दीपों-से झूल रहे हैं चाँद-सितारे
यों ही दीप बहाती होगी वह मेरी विरहिन दीवानी
कुछ मेरे मन की भी सुनजा, ठहर, अरी, लहरों की रानी
मणिक मदिरामय दो नीलम के प्याले हैं,
या ख़िले चाँद में दो गुलाब मतवाले हैं।
अथवा प्राची को छोड़ बस गया है आकर
ऊषा-बाला का हास तुम्हारे नयनों में!
हैं झूम रहीं अधिखिली कमल की दो कलियाँ,
दो श्याम पुतलियाँ हैं चञ्चल मधुपावलियाँ!
हर चितवन में छवि की, यौवन की, धूम लिए
है झूम रहा मधुमास तुम्हारे नयनों में!
उन नयनों से मिलकर खो जाते हैं लोचन
बरबस बँध जाया करते हैं रसिकों के मन!
काजल की झीनी-सी अनियारी रेखा है।
या है मन्मथ का पाश तुम्हारे नयनों में!
वे दो आँखें कजरारी हैं, रतनारी हैं,
वे मतवाली पलकें कुछ भारी-भारी हैं!
सौ बार कि जिस पर तृप्ति निछावर हो जाए,-
देखी हैं ऐसी प्यास तुम्हारे नयनों में!
वे दो आँखें कुछ खोई-खोई रहती हैं,
पंकज पाँखें शबनम से धोई रहती हैं,
बस गई जगारों की बेसुध लाली बनकर
किससे मिलने की आस तुम्हारे नयनों में!
बंदी है नीलाकाश तुम्हारे नयनों में!
कैसे कहूं-'अनजान हो' !
मैंने तुम्हें इस राह पर देखा, प्रथम ही बार है।
लेकिन घटा जैसा, उमड़ आया हृदय में प्यार है।
पग थम गए हैं राह पर, हैं थम गए तुम पर नयन
सहसा हृदय की डाल पर हैं खिल गए सौ-सौ सुमन
परिचय हुआ तो राम ही जाने कि होगा हाल क्या
परिचय बिना ही बन गईं जब प्राण की तुम प्राण हो!
कैसे कहूँ-‘अनजाने हो' !
तुमने मुझे देखा कि जैसे चंचला मुस्का गई
भूली हुई-सी बात कोई याद जैसे आ गई
लगता कि तुम सौ जन्म से मेरे हृदय की पीर हो
आँखें जिसे थीं खोजती तुम तो वही तस्वीर हो
देखा प्रथम ही बार है, लेकिन मुझे तो लग रहा
सौ जन्म की जानी हुई मुख पर लिए मुस्कान हो
कैसे कहूँ-‘अनजान हो' !
मृदु केश वे आषाढ़ की पहली घटाओं-से सघन
मधु-वृष्टि की आशा बँधाते, पर बढ़ाते हैं तपन
यह मुख कि जैसे चाँद-सूरज की छटा का सार ले
विधि ने बनाया है निखिल मधुमास का श्रृंगार ले
यह देह जैसे ओस, मधु, फूलों-भरी चंचल लता
यह गति कि जैसे मंद सौरभ से भरा पवमान हो
कैसे कहूँ-‘अनजान हो' !
ये दो नयन जैसे कि सारी सृष्टि का जादू लिए
हों दो कमले की पंखुरियों में जल रहे. छवि के दिए
यौवन की जैसे देह धर आई शरद की चाँदनी
लज्जा कि जैसे मेघ में लिपटी हुई सौदामिनी
मस्ती कि ज्यों हरिताभ वन में दूधिया झरना बहे
वाणी कि बौरे झुरमुटों में कोकिला की तान हो
कैसे कहूँ-‘अनजान हो' !
उपमान देता हूँ, मगर उपमान मिलता ही नहीं
अनुभूति को अभिव्यक्ति का वरदान मिलता ही नहीं
तुमने मुझे देख कि तुम भी देखती ही रह गईं
पलकें उठीं, पलकें गिरीं, गाथा युगों की कह गई
दो प्रश्नवाचक चिन्ह आपस में गुँथे-से जा रहे
मैं भी खड़ा हैरान हूँ, तुम भी खड़ी हैरान हो
कैसे कहूँ-‘अनजान हो' !
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